गणित की जटिलता का समाधान है वैदिक गणित।

डॉ. सुरेंद्र विक्रम सिंह पडियार
सहायक प्राध्यापक
गणित विभाग
सरदार भगत सिंह राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय रुद्रपुर।

रुद्रपुर। छात्र के सम्पूर्ण विकास हेतु शिक्षा एक महत्वपूर्ण सामाजिक प्रक्रिया है, और गणित जिसका एक अभिन्न अंग है। इतिहास के पन्नो को पलटकर देखे तो प्रायः एक देखने को मिलता है की प्राचीनकाल से ही गणित के पठन-पाठन तथा प्रयोगों के विभिन्न प्रमाण मौजूद रहे हैं। वैदिक गणित’ गणित की प्राचीन प्रणाली पर आधारित है, जिसका प्रारम्भ वैदिक युग में हुआ था। यह सामान्य नियमों एवं सिद्धांतों पर आधारित गणना की एक अद्वितीय प्रविधि है, जिसके द्वारा किसी भी प्रकार की गणितीय समस्या को मौखिक रूप से हल किया जा सकता है। कुछ लोग इस बात का विरोध करते हैं कि वैदिक गणित क्यों कहा जाता है। जिस प्रकार हिंदुओं की आधारशिला वेदों को माना गया है, उसी प्रकार गणित का अस्तित्व भी वेदों में विद्यमान है। वेद आज से हजारों वर्ष पूर्व लिपिबद्ध किये गए थे। इन वेदों में हज़ारों वर्ष पूर्व वैदिक गणितज्ञों ने गणित विषय पर अनेक शोध और औपचारिक वार्तालाप का संकलन किया। अब यह स्पष्ट हो चुका है कि इन लेखों में ही बीजगणित, लघुगणक, वर्गमूल, घनमूल, ज्यामितीय गणना की विभिन्न विधियों तथा शून्य की परिकल्पना की नींव रखी गयी।

यह प्रणाली सोलह वैदिक सूत्रों पर आधारित है। ये वास्तव में शब्द सूत्र हैं, जो सभी प्रकार की गणितीय समस्याओं को हल करने की सामान्य विधियों का वर्णन करते हैं। जिस में सोलह सूत्र संस्कृत भाषा में लिखे गए हैं, जो आसानी से कण्ठस्थ किए जा सकते हैं, और किसी भी बड़ी से बड़ी गणितीय समस्या को शीघ्रता से हल करने में सहायक हैं। आज के इस वैज्ञानिक युग में गणित का अपना विशेष महत्त्व है। परन्तु आज विद्यार्थियों में गणित के प्रति अरुचि तथा उनके कौशलों में कमी परिलक्षित होती है। इसका एक मुख्य कारण है अरुचि। अतः यदि सामान्य गणित के स्थान पर प्राचीन वैदिक गणित की सरलीकृत विधियों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर छात्रों को पढ़ाया जाए तो ये एक मनोरंजनपूर्वक रूप गणित का ले लेगा। हम सभी जानते है की छात्रों की अन्तर्निहित शक्तियों का विकास करना ही शिक्षा का उद्देश्य है। शिक्षा की प्रक्रिया को सुचारु व सुव्यवस्थित ढंग से चलाने के लिए औपचारिक साधन की आवश्यकता होती है, और जिसका मुख्य साधन होता है विद्यालय।

भारत में प्राचीन काल में छात्रों को गुरुकुल में शिक्षा दी जाती थी। उन्हें बालू व रेत पर लिखना सिखाया जाता था। गिनती सिखाने के लिए एक यन्त्र का प्रयोग किया जाता था, जिसे गिनतारा कहते थे। कुछ समय पश्चात् पटिया या पाटी का प्रयोग किया जाने लगा। इसलिए गणित का नाम पाटी गणित भी पड़ गया। स्लेट का आविष्कार बहुत बाद में हुआ। भारत की शिक्षा व्यवस्था में गणित एक प्रमुख विषयों में से एक था। कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार चूड़ाकर्म के बाद छात्र को लिपि और संख्या सीखने का ज्ञान होना चाहिए। हाथी गुम्फा के लेख से ज्ञात होता है कि कलिंग नरेश ‘खारवेल’ के अपने जीवन के नौ वर्ष लिपि व ड्राइंग रेखागणित व अंकगणित सीखने में बिताये थे। राजकुमार गौतम ने भी 8 वर्ष की अवस्था में गणित सीखा था। जैन ग्रंथों में भी गणित के अध्ययन के सूत्र मिलते हैं। प्राचीन भारत में गणित पढ़ाने का उद्देश्य दैनिक जीवन में उपयोगिता हेतु कार्य करना था, पर उस समय कार्य-प्रणाली की अपेक्षा फल पर अधिक जोर दिया जाता था। विद्यालयों में गणित इसलिए उस समय पढ़ाया जाता था, क्योंकि इसका सम्बन्ध धर्म पुस्तकों, गणित-ज्योतिष, फलित ज्योतिष आदि से सबसे अधिक था।

आज के वैज्ञानिक युग में गणित का अपना विशेष महत्व है। इसलिए विद्यालयी पाठ्यक्रम में गणित को अनिवार्य विषय के रूप में रखा गया है। लेकिन छात्र गणित में अधिक कमजोर पाए जाते हैं तथा विद्यार्थियों के मन में यह भय व्याप्त रहता है, कि गणित एक कठिन विषय है। इसलिए आज आवश्यकता इस बात की है कि गणित विषय को किस प्रकार सरल और रुचिकर बनाया जाए, जिससे छात्र पुनः रुचिपूर्वक गणित विषय का अध्ययन कर सकें। इसके साथ-साथ छात्रों को उनके गुणों एवं कौशलों से परिचित कराया जाए। गणित से छात्रों में भय रहता है जिसका प्रमुख कारण गणित की जटिल विधियाँ हैं। अतः यदि सामान्य गणित के स्थान पर प्राचीन वैदिक गणित की सरलीकृत विधियाँ पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर दी जाए तो छात्र मनोरंजनपूर्वक गणित का अध्ययन कर सकेंगे। जैन गणितज्ञ श्री महावीराचार्य जी ने अपनी पुस्तक ‘गणित सार संग्रह’ में लिखा है कि “लौकिक, वैदिक तथा सामाजिक जो-जो व्यापार हैं, उन सब में गणित का उपयोग है, कामशास्त्र, अर्थशास्त्र, पाकशास्त्र, गन्धर्वशास्त्र, नाट्यशास्त्र, आयुर्वेद भवन निर्माण आदि विषयों में गणित अत्यंत उपयोगी है।” सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी, ग्रह आदि की गतियों के बारे में जानने के लिए गणित की ही आवश्यकता होती है। द्वीपों, समुद्रों, पर्वतों, सभा भवनों एवं गुंबदाकार मंदिरों के परिमाण तथा अन्य बातें गणित की सहायता से जानी जाती हैं। मनुष्य के बौद्धिक एवं मानसिक विकास का आधार गणित को ही माना गया है। मानव जीवन में नित्य ही प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में आदान-प्रदान करता है। क्रय, विक्रय तो जीवन का अंग बन गया है। साधारण काल से लेकर महान व्यक्तियों तक यह प्रक्रिया स्वचालित है। यही क्रम जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में जारी रहता है।

इस प्रकार हम कह सकते है कि हमारी आधुनिक सभ्यता का आधार गणित ही है। विज्ञान की खोजों के पीछे गणित के ही सिद्धांत सर्वोपरि हैं। बिना गणित के विज्ञान की खोजों में सफलता मिलना नितांत असंभव है प्रत्येक व्यावहारिक कार्य में जैसे नापना, तौलना, गिनना आदि का बोध गणित के ज्ञान के द्वारा ही संभव है, विज्ञान विषयों में ही नहीं बल्कि अन्य विषयों में भी गणित की अहम् भूमिका होती है। विद्यार्थियों की गणितीय समस्याओं को हल करना मुख्य उदेश्यो में से एक है, वर्तमान गणित शिक्षण की विधियों का सरल व सहज ढंग से विश्लेषण करना विद्यार्थियों को गणित के भय से मुक्त करना है। हज़ारों विद्यार्थी गणित में अनुत्तीर्ण होने के भय से परीक्षा छोड़ देते हैं। अतः वर्तमान में ऐसी समस्याओं को हल करने हेतु गणित की नवीन प्रणालियों का अध्ययन करना है। जिसके लिए वैदिक गणित की आवश्यकता अत्यधिक है जिनमें से प्रमुख है।

1. वर्तमान की कठिन गणित पद्धतियों के कारण विद्यार्थियों के लिए गणित विषय का डर बना हुआ है। उसे वैदिक गणित के सरल, सहज एवं शीघ्र हल करने की पद्धतियां का उपयोग कर विषय को रोमांचक एवं आनंददायक बनाया जा सकता है।

2. वैदिक गणित पद्धति की स्वाभाविक मानसिक प्रणालियों के नियमित अभ्यास से मस्तिष्क का स्वतः ही सर्वांगीण विकास होने लगेगा जो की कंप्यूटर द्वारा प्रश्न हल करने से संभव नहीं है।

3. वैदिक गणित में प्रत्येक गणितीय समस्या को हल करने की अनेक विधियाँ हैं जिनके प्रयोग से विद्यार्थियों में उत्साह, आनंद, विश्वास और अनुसन्धान प्रवृत्ति का जागरण लगातार बढ़ता हुआ नजर आएगा, और साथ ही शोध के क्षेत्र में नवीन दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है

4. वैदिक गणित द्वारा हर भारतीय के हृदय में अपने देश, धर्म, संस्कृति और इतिहास के प्रति गौरव की भावना पैदा होती है। इससे अपने महान पूर्वजों के प्रति हमारी आस्था और बड़ जाती है।

5. वैदिक गणित पद्धति ग्रामीण, नगरीय, प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा प्राप्त के विद्यार्थियों के अनुरूप विशेष रूप से सुखद एवं रोमांचकारी बनाती है। वैदिक गणित की पद्धतियों का अभ्यास करने पर उत्तर जल्दी निकलता है और गलती होने की सम्भावना घट जाती है। कागज कलम की आवश्यकता न्यूनतम होती है और कई बार तो एक पंक्ति में उत्तर लिखना संभव हो जाता है। प्रतियोगी परीक्षाओं में समय के अभाव को देखते हुए वैदिक गणित का प्रयोग अत्यंत लाभदायक है।

‘वैदिक गणित’ की उपयोगिता को देखते हुए समय-समय पर अनेक शोध तथा अध्ययन हुए। मैकाले की शिक्षा पद्धति के भारत में लागू होने से पूर्व भारतीय पाठशालाओं में गणित शिक्षा वैदिक गणित रीति से पढ़ाई जाती थी, यह बात अलग है कि “ये विधियाँ वैदिक काल से ही विकसित होती रही हैं।

सर्वप्रथम वैदिक गणित की पुनर्खोज का श्रेय पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ जी को जाता है, जिन्होंने प्राचीन पाठ्य पुस्तकों का अध्ययन कर 1958 में ‘वैदिक गणित’ नामक कृति की रचना की जिसमें उन्होंने गणित के सोलह सूत्रों के सिद्धांतों की व्याख्या की थी इसके साथ ही वैदिक गणित के क्षेत्र में टी०जी० उन्कल्तेअर, एस० सेशाचाला राव ने 1997 में ‘इंट्रोडक्शन ऑफ़ वैदिक मैथमेटिक्स’ नामक पुस्तक की रचना की। 1960 में जब वैदिक गणित नामक पुस्तक की प्रतिलिपि लंदन पहुँची तब गणित की इस नयी वैकल्पिक प्रणाली की प्रशंसा की गयी थी इसके सूत्रों से प्रभावित होकर ब्रिटिश गणितज्ञों जैसे कैनेथ विलियम्स, एण्ड्र्यू निकोलस तथा जेरेमी पिकल्स ने अनेक विद्यालयों में इसकी शिक्षा प्रारम्भ की और शोध कार्य करते हुए 1982 में ‘इंट्रोडक्टरी लेक्चर्स ऑन वैदिक मैथमेटिक्स’ नामक पुस्तक का अनावरण किया। भारत में 1968 में महर्षि योगी ने 11-14 वर्ष की आयु के बच्चों के ऊपर वैदिक गणित का अध्ययन किया। 1995 में विद्या भारती ने अपने विद्यालयों में वैदिक गणित को पाठ्यक्रम में सम्मिलित किया।

रिपोर्टर- एस. आर. चन्द्रा भिकियासैंण

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