जनवरी माह से ही जंगलों में आग का लगना हमारी जैवविविधता के लिए है घातक।
पर्यावरणीय लेखक – कृपाल सिंह शीला (स.अ.)
रा.जू.हा. मुनियाचौरा, भिकियासैंण (अल्मोड़ा), उत्तराखंड
भिकियासैंण। जनवरी माह से ही जंगलों में आग का लगना हमारी जैवविविधता के लिए घातक है। हमारे जंगलों में अभी से आग लगने के पीछे गाँव में रहने वाले लोगों का रोजगार, कृषि का जंगली जानवरों सुअर, बंदर, लंगूर, मोर, नीलगाय, सेही, हिरन, काकड़ आदि जंगली जानवरों द्वारा नुकसान हो रहा है। बच्चों की अच्छी शिक्षा व सुख सुविधाओं के लिए शहरों की ओर पलायन कर जाना है। गाँवों के लोगों द्वारा कृषि कार्य व पशुपालन का कार्य छोड़ देने से आज स्थिति ये है कि जो घास जानवरों के लिए गर्मी व बरसात के महीने तक के लिए घास को काटकर सुखाकर उसे लूटा (सू) लगाकर पालतू जानवरों के लिए संरक्षित कर लिया जाता था। आज उस घास को कोई काटने वाला तक नहीं है। जो घास सितंबर-अक्टूबर माह में काट ली जाती थी। वह घास अब वैसे ही है। अब वह एक सूखी घास के रुप में है।

पहले जो आग हमें जंगलों में प्रचंड गर्मी के महीनों मई, जून के महीनों में लगी दिखती थी। अब वह आग जंगलों में जनवरी माह से ही लगनी शुरु हो गई है, जिसे आप देख सकते है। जो कि हमारे पर्यावरण, वनस्पतियों, जंगली जानवरों के लिए भीषण विनाशकारी परिणाम होगा। जंगलों में आग लगने के प्रमुख कारणों में लोगों द्वारा ईधन के लिए लकड़ी काटने से छटाई गई पत्तियों को सूखने के बाद जलाने, खेत की निराई के बाद जमा बेकार घास, लकड़ी (अड़ाह जलाने) या फिर राहगीरों द्वारा बीड़ी-सिगरेट जलाने के बाद जलती हुई माचिस की तीली को फेंक देने से यह आग जंगलों तक पहुँच जाती है। जो हमारे पर्यावरण के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
इस वनाग्नि से बहुत से जंगली जानवर व उनके छोटे बच्चे आग की चपेट में आने से झुलस जाते हैं। बहुत सी जड़ी बूटियाँ, वनस्पतियाँ झुलसकर, जलकर नष्ट हो जाती है, जिससे प्रतिवर्ष कई प्राणी व वनस्पति जातियाँ समाप्त हो जाती हैं। अपने पर्यावरण को संरक्षित करना हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है। हम आग न लगाएं, जंगलों तक आग को पहुँचने से रोकें। माचिस की जलती तीली को ऐसे ही ना फेंकें। जब हमारे हरे – भरे जंगल रहेंगे, तभी हमें साँस लेने को शुद्ध हवा, भोजन, पशुओं को चारा, ईधन, फल आदि मिल पाएंगें। जब हमारा पर्यावरण हरा-भरा, साफ, स्वछ रहेगा तभी हम सब प्राणी स्वस्थ रह सकते है।