विश्व जल दिवस के अवसर पर प्राचीन गांव कनोडी़- मासी के युवा प्रधान गिरधर बिष्ट ने महिला मंगल दलों के साथ मुहिम छेडी़ नौलों का कैसे करें रखरखाव।

भिकियासैंण (अल्मोड़ा) विश्व जल दिवस के अवसर पर रामगंगा घाटी के प्राचीन गांव कनोणी-मासी के युवा ग्राम प्रधान गिरधर बिष्ट ने महिला मंगल दलों के साथ मिलकर परम्परागत जल स्रोतों नौले धारों के संरक्षण संवर्धन हेतु अनोखी मुहीम मेरा गांव मेरा नौला छेड़ी हुई हैं,जिसके तहत गांव के आसपास के सभी नौले धारों की साफ सफाई एवं जल स्रोतों को वर्षा जल से रिचार्ज करने हेतु ग्राम पंचायत स्तर पर जल सरंक्षण के सारे उपाय परस्पर जन सहभागिता से किये जा रहे है। ग्राम पंचायत को इस जल सरंक्षण कार्यक्रम हेतु समस्त हिमालयी क्षेत्र में पहाड़ पानी परम्परा के प्रतीक परम्परागत जल स्रोतों नौले धारों की जल सुरक्षा को संकल्पित समुदाय आधारित संस्था नौला फाउंडेशन का साथ मिला है।

विश्व जल दिवस के अवसर पर आयोजित परस्पर जन सहभागिता कार्यक्रम नौले से नाता में ग्राम प्रधान गिरधर बिष्ट ने बताया की उनके क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के साथ साथ अन्धाधुन्ध कंकरीट विकास के कारण अधिकांश नौले जलविहीन होने से सूख गए हैं, कुछ में पानी लगातार कम हो रहा है। नौलों का भूमिगत जलस्रोत अत्यन्त संवेदनशील जल नाड़ियों से संचालित रहता है, इसलिए विकासपरक गतिविधियों तथा समय-समय पर होने वाले भूकम्पीय झटकों से इन नौलों के जलप्रवाह जब बाधित हो जाते हैं तब ये नौले भी सूखने लगते हैं। कहते हैं कि अल्मोड़ा नगर,जिसे चंद राजाओं ने 1563 में राजधानी के रूप में बसाया था, वहां परंपरागत जल प्रबंधन के मुख्य वहां के 360 नौले ही थे। इन नौलों में चम्पानौला, घासनौला, मल्ला नौला, कपीना नौला, सुनारी नौला, उमापति का नौला, बालेश्वर नौला, बाड़ी नौला, नयाल खोला नौला, खजांची नौला, हाथी नौला, डोबा नौला,दुगालखोला नौला आदि प्रमुख हैं। लेकिन अपनी स्थापना के लगभग पांच शताब्दियों के बाद अल्मोड़ा के अधिकांश नौले लुप्त हो कर इतिहास की धरोहर बन चुके हैं और इनमें से कुछ नौले भूमिगत जलस्रोत के क्षीण होने के कारण आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

नौला फाउंडेशन के सर्वेक्षण के अनुसार नौलों के लिए प्रसिद्ध कुमाऊं के द्वाराहाट स्थित अधिकांश नौले इसी प्राकृतिक प्रकोप के कारण सूख गए। नौला फाउंडेशन के वैदिक जल विज्ञानं के विद्वान ड़ॉ मोहन चंद्र तिवारी के अनुसार उत्तराखंड में ज्यादातर नौलों का निर्माण कत्यूर व चंद राजाओं के समय में किया गया था। नौलों के इतिहास की दृष्टि से बागेश्वर स्थित बद्रीनाथ का नौला उत्तराखण्ड का सर्वाधिक प्राचीन नौला माना जाता है जिसकी स्थापना सातवीं शताब्दी ई.में हुई थी। वराहमिहिर के जल विज्ञान से प्रेरणा लेकर उत्तराखण्ड में नौलों की स्थापना भूमिगत जल नाड़ियों और महानाड़ी के सम्मिलन स्थल पर की जाती थी, पहाड़ों में आज भी ‘सीर फूटना’ का व्यवहार होता है, जिसका तात्पर्य जल की शिराओं या जल नाड़ियों से है। नौले या जलाशय के चारों ओर विभिन्न प्रकार के वृक्षों को लगाया जाने का उल्लेख भी वराहमिहिर की ‘बृहत्संहिता’ में आया है, जिनमें बांज, उतीस, आंवला, बड़, खड़िक, शिलिंग, पीपल, बरगद, तिमिल, दुधिला, पदम, आमला, शहतूत आदि के वृक्ष विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं. इन वृक्षों की सहायता से नौलों में भूमिगत जल नाड़ियां सक्रिय होकर द्रुतगति से जल को रिचार्ज करती रहती हैं।

नौलों का निर्माण भूमिगत पानी के रास्ते पर गड्डा बनाकर उसके चारों ओर से सीढ़ीदार चिनाई करके किया जाता था। इन नौलों का आकार वर्गाकार होता है और इनमें छत होती है तथा कई नौलों में दरवाजे भी बने होते हैं। जिन्हें बेहद कलात्मक ढंग से बनाया जाता था। इन नौलों की बाहरी दीवारों में देवी-देवताओं के सुंदर चित्र भी बने रहते हैं। ये नौले आज भी स्थापत्य एवं वास्तुशिल्प का बेजोड़ नमूना हैं। अल्मोड़ा जनपद का स्यूनारकोट का नौला सबसे प्राचीन एवं कला की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ नौला माना जाता है। चंपावत के बालेश्वर मंदिर का नौला उत्तराखंड का सर्वोत्कृष्ट सांस्कृतिक वैभव सम्पन्न नौला है। कार्यक्रम में क्षेत्र पंचायत सदस्य रिंकी, पूर्व प्रधान विमला वर्मा आदि महिला समूह अध्यक्ष भारी संख्या में उपस्थिति रहे।

रिपोर्टर- एस. आर. चंद्रा भिकियासैंण

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