उत्तराखंड का सबसे बड़ा पर्व घुघुतिया – उत्तरायणी (मकर संक्रांति), जानें कैसे शुरु हुआ यह त्यौहार, क्या है इसके पीछे की कहानी।
भिकियासैंण (अल्मोड़ा) आज 15 जनवरी 2024 है। आज मकर संक्रांति का पर्व है। इस बार मकर संक्रांति 15 जनवरी 2024, सोमवार को मनाई गई। हिन्दुओं के सबसे पवित्र धार्मिक आयोजनों में से एक मकर सक्रांति भी है। मकर संक्रान्ति के दिन से ही माघ महीने की शुरुआत भी होती है। मकर संक्रान्ति का त्यौहार पूरे भारत में बड़े ही धूमधाम से मनाया जाता है लेकिन देश के अलग – अलग हिस्सों में ये त्यौहार अलग – अलग नाम और तरीके से मनाया जाता है और इस त्यौहार को उत्तराखण्ड में “उत्तरायणी” के नाम से मनाया जाता है। भारतीय संस्कृति में इस दिन का बहुत महत्व बताया गया है। इस दिन ग्रहों के राजा उत्तरायण होकर अपनी मकर राशि में प्रवेश करते हैं। इसके साथ ही तमाम शुभ कार्यों की शुरुआत हो जाती है।
घुघुतिया, उत्तरायण (मकर संक्रांति) का महत्व –
मकर संक्रांति या घुघुतिया प्रसिद्ध हिंदू त्यौहारों में से एक है और उत्तराखंड में बहुत उत्साह के साथ मनाया जाता है। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार इस दिन सूर्य कर्क राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। यह दिन सूर्य के उत्तरायण होने का प्रतीक है। प्रवासी पक्षी भी पहाड़ों पर लौट आते हैं, क्योंकि मौसम में परिवर्तन होता है। मकर संक्रांति पर लोग खिचड़ी दान में देते हैं और कुमाऊं बागेश्वर (सरयू और गोमती संगम) और रानीबाग (गौला) में पवित्र नदियों में डुबकी लगाते हैं। वे घुघुतिया (जिसे काले कौवा के नाम से भी जाना जाता है) का त्यौहार मनाने के लिए उत्तरायणी मेलों में भी भाग लेते हैं।
इस अवसर पर घर – घर में आटे के घुघुते बनाये जाते हैं और अगली सुबह को कौवे को दिये जाते हैं, ऐसी मान्यता है कि कौवा उस दिन जो भी खाता है वो हमारे पितरों (पूर्वजों) तक पहुँचता है)। कुमाऊं में इस दिन आटे के घुघुते, खजूर आदि बनाए जाते हैं, जबकि गढ़वाल में खिचड़ी खाने और दान देने का रिवाज है। कुमाऊं में कौवे को घुघुते खिलाने का रिवाज है और इसके लिए कौवे को ‘काले कौवा काले, घुघती माला खाले’ गाकर बुलाया जाता है। आटे में सौंफ, गुड़ आदि इससे अलग – अलग आकार बनाए जाते हैं और कुछ देर सुखाकर घी में तल दिए जाते है, इन्हें ही घुघुते कहते हैं। बच्चे घुघुते की माला बनाकर और उसे गले में डालकर गांव भर में घूमते – फिरते हैं। गढ़वाल में इस दिन उड़द दाल की खिचड़ी बनायी जाती है और पंतंग उड़ाने का रिवाज भी है। इस दिन ब्राह्मणों को उड़द दाल और चावल दान करने का रिवाज भी गढ़वाल में है। गांवों में इसे चुन्निया त्यौहार भी कहा जाता है, जहां इस दिन खास किस्म के आटे से मालपुवे (चुन्निया) बनाए जाते हैं।
कुमाऊँ में अगर आप मकर संक्रान्ति में चले जायें तो आपको शायद कुछ ये सुनायी पड़ जाएं –
काले कौव्वा काले, घुघूती माला खा ले।
ले कौव्वा पूड़ी, मैं कें दे ठुल-ठुलि कूड़ी,
ले कौव्वा ढाल, दे मैं के सुणो थाल,
ले कौव्वा तलवार, बणे दे मैं के होश्यार।
साथ में दिखायी देंगे गले में घुघुते की माला पहने हुए छोटे-छोटे बच्चे, जिसमें वे डमरु, तलवार, ढाल, जांतर भी पिरोये रहते हैं।
कुमाऊँ में मकर संक्रान्ति का महत्व –
कुमाऊँ के गाँव-घरों में घुघुतिया त्यौहार से सम्बधित एक कथा प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि किसी एक राजा का घुघुतिया नाम का कोई मंत्री राजा को मारकर खुद राजा बनने का षड्यन्त्र बना रहा था लेकिन एक कौव्वे को ये पता चल गया और उसने राजा को इस बारे में सब बता दिया। राजा ने फिर मंत्री घुघुतिया को मृत्युदंड दिया और राज्य भर में घोषणा करवा दी कि मकर संक्रान्ति के दिन राज्यवासी कौव्वों को पकवान बना कर खिलाएंगे, तभी से इस अनोखे त्यौहार को मनाने की प्रथा शुरु हुई। हिन्दू कैलेंडर के अनुसार मकर सक्रांति सूर्य के कर्क राशि से मकर राशि में प्रवेश करने के उपलक्ष्य में मनाई जाती है। इस दिन को ऋतु परिवर्तन के रुप में देखा जाता है। माना जाता है कि मकर सक्रांति के दिन से सूर्य धीरे-धीरे उत्तर दिशा की ओर बढ़ना शुरु हो जाता है। धीरे-धीरे दिन बड़े होने लगते हैं और गर्मी भी बढ़ने लगती है। इसके साथ प्रवासी पक्षी भी वापस पहाड़ों के ठंडे इलाकों की ओर रुख करते हैं। उत्तराखंड के कुमाऊं क्षेत्र में इसे ‘उत्तरायणी’ और ‘घुघती सज्ञान’ के नाम से भी जाना जाता है, जबकि गढ़वाल में ‘खिचड़ी सक्रांति’ कहा जाता है। इस दिन यहां जगह-जगह मेलों का आयोजन होता है।
अलग – अलग दिन होता है यह पर्व –
बागेश्वर के सरयू नदी के पार और वार एक दिन आगे-पीछे इसे मनाने की प्राचीन परंपरा है। सरयू पार यानी दानपुर की तरफ के लोग पौष मास के आखिरी दिन घुघुत तैयार करते हैं और इसके अगले दिन कौओं को बुलाते हैं। सरयू वार यानी कौसानी अल्मोड़ा के लोग माघ मास की संक्रांति यानी एक दिन बाद पकवान तैयार करते हैं। इसके अगले दिन घरों के बच्चे ‘काले कौआ-काले कौआ’ कहकर पर्व मनाते हैं। जानकार बताते हैं कि कुमाऊं में प्राचीन समय की राज व्यवस्था की वजह से यह एक दिन का अंतर देखने को मिलता है।
ऐतिहासिक मेले का आयोजन –
कुमाऊँ में उत्तरायणी के दिन सरयू, रामगंगा, काली, गोरी और गार्गी (गौला) आदि नदियों में कड़ाके की सर्दी के बावजूद लोग सुबह स्नान- ध्यान कर सूर्य का अर्घ्य चढ़ाकर आराधना करते हैं। उत्तरैणी कौतिक का सबसे बड़ा मेला बागेश्वर के सरयू बगड़ (मैदान) पर लगता है। एक समय यहां हुड़के की थाप पर झोड़े चांचरी, भगनौल और छपेली गाने की परंपरा थी। काली कुमाऊं, मुक्तेश्वर, रीठागाड़, सोमेश्वर और कत्यूर घाटी के डांगर और गितार इस तरह समां बांध देते थे, जिससे सुबह होने का पता ही नहीं लगता था। अब समय की बदलती बयार प्रोफेशनल कलाकर मंच पर तीन दिन तक सांस्कृतिक प्रोग्राम करते हैं।
यहां लगते हैं उत्तरायणी मेले –
यही नहीं मकर संक्रान्ति या उत्तरायणी के इस अवसर पर उत्तराखंड में नदियों के किनारे जहाँ तहाँ मेले लगते हैं। इनमें दो प्रमुख मेले हैं – बागेश्वर का उत्तरायणी मेला (कुमाँऊ क्षेत्र में) और उत्तरकाशी में माघ मेला (गढ़वाल क्षेत्र में)। बागेश्वर का उत्तरायणी मेला तो दुनियाभर में प्रसिद्ध है। बागेश्वर के अलावा हरिद्वार, रुद्रप्रयाग, पौड़ी और नैनीताल जिलों में भी उत्तरायणी मेलों की रौनक देखने लायक होती है।
उत्तरायणी क्या है –
‘उत्तरायणी’ का त्यौहार उत्तराखंड में सबसे पवित्र त्यौहारों में से एक है। इस त्यौहार का उत्तराखंड राज्य में बहुत महत्व है और इसे काफी अलग तरीके से मनाया जाता है। उत्तरायणी का त्यौहार उत्तराखंड के कुमाऊँ और गढ़वाल क्षेत्रों की संस्कृति और रीति-रिवाजों को दर्शाता है।
उत्तराखंड में उत्तरायणी का त्यौहार –
हिंदू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार, उत्तरायणी के दिन सूर्य कर्क (कर्क) राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। इसका अर्थ है कि इस दिन से सूर्य ‘उत्तरायण’ हो जाता है, अर्थात वह उत्तर की ओर गमन करने लगता है। ऐसा माना जाता है कि इस दिन से प्रवासी पक्षी पहाड़ों की ओर लौटने लगते हैं क्योंकि यह दिन ऋतु परिवर्तन का संकेत देता है।
रिपोर्टर- एस. आर. चन्द्रा भिकियासैंण






