उत्तराखंड शिक्षा विभाग में इस वर्ष से 3 मई को आज ही के दिन वीर केसरी चन्द शहीदी दिवस का अवकाश भी शामिल कर लिया गया है। इनकी अहम भूमिका का जिक्र कुछ यूँ बयाँ है।
भिकियासैण (अल्मोड़ा) अमर शहीद वीर केसरी चन्द जी का जन्म 1 नवम्बर 1920 को जौनसार बावर के क्यावा गांव में पं० शिवदत्त के घर पर हुआ था। इनकी प्राथमिक शिक्षा विकासनगर में हुई। १९३८ में डी०ए०वी० कालेज, देहरादून से हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण कर इसी कॉलेज मे इण्टरमीडियेट की भी पढ़ाई जारी रखी। केसरी चन्द जी बचपन से ही निर्भीक और साहसी थे, खेलकूद में भी इनकी विशेष रुचि थी, इस कारण वे टोली नायक रहा करते थे। नेतृत्व के गुण और देशप्रेम की भावना इनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। देश में स्वतन्त्रता आन्दोलन की सुगबुगाहट के चलते केसरी चन्द पढ़ाई के साथ-साथ कांग्रेस की सभाओं और कार्यक्रमों में भी भाग लेते रहते थे।
इण्टर की परीक्षा पूर्ण किये बिना ही केसरी चन्द जी १० अप्रैल, १९४१ को रायल इन्डिया आर्मी सर्विस कोर में नायब सूबेदार के पद पर भर्ती हो गये। उन दिनों द्वितीय विश्व युद्ध जोरों पर चल रहा था, केसरी चन्द को २९ अक्टूबर, १९४१ को मलाया के युद्ध के मोर्चे पर तैनात किया गया। जहां पर जापानी फौज द्वारा उन्हें बन्दी बना लिया गया, केसरी चन्द जी ऐसे वीर सिपाही थे, जिनके हृदय में देशप्रेम कूट-कूटकर भरा हुआ था। नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जी ने नारे “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा” के नारे से प्रभावित होकर यह आजाद हिन्द फौज में शामिल हो गये। इनके भीतर अदम्य साहस, अद्भुत पराक्रम, जोखिम उठाने की क्षमता, दृढ संकल्प शक्ति का ज्वार देखकर इन्हें आजाद हिन्द फौज में जोखिम भरे कार्य सौंपे गये, जिनका इन्होंने कुशलता से सम्पादन किया।
इम्फाल के मोर्चे पर एक पुल उड़ाने के प्रयास में ब्रिटिश फौज ने इन्हें पकड़ लिया और बन्दी बनाकर दिल्ली की जिला जेल भेज दिया। वहां पर ब्रिटिश राज्य और सम्राट के विरुद्ध षडयंत्र के अपराध में इन पर मुकदमा चलाया गया और मृत्यु दण्ड की सजा दी गई। मात्र २४ वर्ष ६ माह की अल्पायु में यह अमर बलिदानी ३ मई, १९४५ को ब्रिटिश सरकार के आगे घुटने न टेककर हंसते-हंसते ’भारतमाता की जय’ और ’जयहिन्द’ का उदघोष करते हुये फांसी के फन्दे पर झूल गये। वीर केसरी चन्द की शहादत ने न केवल भारत वर्ष का मान बढ़ाया, वरन उत्तराखण्ड और जौनसार बावर का सीना गर्व से चौड़ा कर दिया। भले ही उनकी शहादत को सरकारों ने भुला दिया हो, लेकिन उत्तराखण्ड के लोगों ने उन्हें और उनकी शहादत को नहीं भुलाया। उनकी पुण्य स्मृति में आज भी चकराता के पास रामताल गार्डन (चौलीथात) में प्रतिवर्ष एक मेला लगता है, जिसमें हजारों-लाखों लोग अपने वीर सपूत को नमन करने आते हैं। जौनसारी लोक गीत ’हारुल’ में भी इनकी शहादत को सम्मान दिया जाता है।