एक देश, एक चुनाव की चिंताएं, चुनौतियां और खतरे- संजय कुमार टम्टा बागेश्वर।

भिकियासैंण/बागेश्वर। केंद्र सरकार द्वारा एक देश एक चुनाव के नारे के साथ ही 18 से 22 सितंबर 2023 को आयोजित विशेष सत्र में इस विधेयक को लाने की घोषणा कर दी गई है, इसके लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया है। यह समिति लोकसभा, विधानसभा एवं स्थानीय निकाय के चुनाओं को एक साथ कराए जाने के लिए विधिक सुझाव प्रस्तुत करेगी। सरकार का तर्क है कि तीनों चुनाव एक साथ करने से चुनावी खर्च में कमी आएगी, समय-समय पर तीनों स्तर पर होने वाले चुनावों की आचार संहिता से विकास कार्य बाधित होने से छुटकारा मिलेगा। शासन- प्रशासन की लगातार चुनाव में लगने वाली ऊर्जा का इस्तेमाल विकास कार्यों के लिए किया जा सकेगा इससे विकास कार्यों को गति मिलेगी आदि।

विदित है इस संबंध में सरकार के समक्ष कुछ चुनौतियां भी हैं संविधान के अनुच्छेद 83 के अनुसार लोकसभा, विधानसभाओं का कार्यकाल 5 वर्ष निर्धारित किया गया है, अनुच्छेद 83 (2) के अनुसार विधानसभा का कार्यकाल एक बार में एक साल के लिए बढ़ाया जा सकता है। यदि इससे पूर्व ही लोकसभा या विधानसभा बहुमत के आधार पर भंग हो जाती है तो तब क्या होगा ? जबकि पूर्व में कई बार हमारी लोकसभा 5 वर्ष के कार्यकाल के बाद भी 6 माह, एक वर्ष, तीन वर्ष में ही भंग होती रही हैं, ऐसा ही राज्यों में भी हुआ है। कई बार चुनाव कराने के बाद भी स्पष्ट बहुमत न मिलने के कारण एक वर्ष के अंदर ही विधानसभा चुनाव हुए हैं। ऐसी स्थिति में क्या होगा ? क्या चुनाव के बाद अगले 5 वर्षों तक केंद्र या राज्य विधानसभा विघटित होने के बाद भी बनी रहेंगीं या 5 वर्ष पूर्ण होने तक राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा या कार्यवाहक सरकार स्थापित की जाएगी? यह बड़ा प्रश्न होगा। यदि ऐसा ना किया गया तो किसी ठोस कानून के आधार पर देश के प्रथम चुनाव की भांति सभी चुनाव एक साथ करा भी लिए जाएं तो भी कुछ सालों बाद लोकसभा, विधानसभाओं के अलग-अलग समय पर विघटित होने से फिर वही स्थिति आ जाएगी, जैसी आज है, तब एक देश एक चुनाव का क्या औचित्य रह जाएगा।

जब से एक देश, एक चुनाव को लेकर चर्चा चल रही हैं जनता में इसेलेकर बड़ी आशंकाऐ भी है। वह इसमें कुछ खतरे की आहट भी देख रही है। पहला, यह कि यह देश के संघीय ढांचे के अनुकूल नही है। 1951 के पहले चुनावों में दोनों चुनाव एक साथ करना मजबूरी थी। आज ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। दूसरा, इससे सत्ता के केंद्रीकरण को बढ़ावा मिलेगा। केंद्र सरकार की ताकत के आगे राज्य व स्थानीय मुद्दे राजनीतिक परिदृश्य से हाँसिये में चले जाएंगे, भारत जैसे विविधता वाले देश में यह स्थिति राज्यों में असंतोष को बढ़ावा देगी। तीसरा, चुनाव की यह प्रणाली संसदीय शासन व्यवस्था के स्थान पर अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली को बढ़ावा देने वाली प्रतीत हो रही हैं। चौथा, इससे सबसे भयावह आशंका यह है कि कभी कोई राजनीतिक दल देश में बाहरी युद्ध की आशंका, अफवाह, झूठ के बल पर अथवा धार्मिक उन्माद उत्पन्न कर, देश के अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर बहुसंख्यक मतदाताओं को उनके खिलाफ भड़का कर क्षणिक भावनात्मक आवेश के बल पर देश के केंद्र व राज्यों में एक साथ भारी बहुमत प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार के बहुमत से देश में एक प्रकार की संवैधानिक तानाशाही उत्पन्न हो सकती है, जिसे प्राप्त कर वह राजनीतिक दल अपने निजी व संकीर्ण हितों के लिए संविधान को बदलने की ताकत अर्जित कर सकता है, जो इस देश की विविधता व संवैधानिक व्यवस्था के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है। वर्ष 2015 में आईडीएफसी संस्थान के स्टडी सर्वे में पाया गया कि लोकसभा व विधानसभा में चुनाव एक साथ कराए जाने पर 77 फ़ीसदी मतदाता एक दल वह एक गठबंधन के पक्ष में मतदान करेंगे। इस सर्वे से तय है कि विधानसभा चुनाव में भी राष्ट्रीय व केंद्रीय सत्ता के मुद्दे ही हावी रहेंगे जिससे स्थानीय मुद्दे हांसिये पर चले जाएंगे, यह स्थिति देश के संघीय ढांचे, संवैधानिक लोकतंत्र व संविधान के उद्देश्यों के विपरीत होगी।

वास्तव में सरकारें चुनावी खर्च बढ़ाने के लिए, देश के विकास के लिए यह उचित समझती है तो राज्य विधानसभा व स्थानीय निकाय चुनाव एक साथ कर सकती है। लोकसभा चुनाव से 6 माह पूर्व व 6 माह बाद होने वाले राज्य विधानसभा चुनाव को लोकसभा चुनाव के साथ कर सकती है, जैसे वर्तमान में 2024 के लोकसभा चुनाव से पूर्व चार राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसी स्थिति में लोक सभा के साथ सभी राज्यों के चुनाव करने के बजाय केवल इन राज्यों का कार्यकाल बढ़ाते हुए उनके चुनाव भी लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं। पूर्व चुनाव आयुक्त एस वाई कुरैशी का कहना है कि लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए बार-बार चुनाव होना बड़ी बात नहीं है, इससे राजनेताओं की जिम्मेदारी तय होती है उन्हें बार-बार जनता के बीच आना पड़ता है। जिससे उन पर जिम्मेदारी का दबाव बना रहता है। इस प्रकार हमें अपने लोकतंत्र को बचाए रखने के लिए कुछ कीमत तो चुकानी ही होगी। सरकारें इसके लिए राजनीति दलों के अंधाधुंध बढ़ते हुए चुनावी खर्च में कटौती कर सकती हैं। राज्य विधानसभा चुनावों में देश के प्रधानमन्त्री व केन्द्रीय मंत्रियों के दौरों को सीमित कर सकती हैं। इसका लाभ यह होगा राज्य विधानसभा के चुनाओं में केन्द्रीय नेताओं का ध्यान राष्ट्रीय मुद्दों व विकास कार्यों पर बना रहेगा। लेकिन मात्र चुनावी खर्च में कटौती व विकास के नाम पर पूरे देश में एक चुनाव करना देश हित में नहीं होगा।

रिपोर्टर- एस. आर. चन्द्रा भिकियासैंण

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